गुरुवार, 6 जनवरी 2011

वो लड़की


इसी आँगन में देखी थी उसे,
जब जन्म हुआ था उसका
पिता ने बजवाया था शहनाई
लाखो बार चूमा था उसे
मेरी लक्ष्मी कहकर
माँ भी धरती में नहीं
मानो आसमान में उड़ रही थी
बड़ी मन्नतो से पाया था उसे
ढेरो खुशिया लेकर आई थी
वो लड़की,
इसी आँगन .....................
अपने नन्हे नन्हे पैरों से चलते हुए
कभी गिरते तो कभी सम्हलते हुए
पिता ने थाम कर हाथ उसका
चलना सिखाया सम्हलना सिखाया
माँ ख़ुशी से झूम उठती
सुनकर लाडली की तोतली बातें
माँ बाप की आँखों का तारा थी
वो लड़की
इसी आंगन
.....................
यौवन की दलहिज पे रखा था कदम उसने
खूबसूरती की मूरत थी वो
पिता ने देखा हर सपना उसमे
माँ भी थकती नहीं निहार
निहार उसे
माँ-बाप कासपना थी
वो लड़की
इसी आँगन ...................
जब दौड़ते हुए आई थी वो
हाथो में माँ बाप का सपना लिए
जो देखा था उन्होंने
पिता आज गर्वित था इस संतान पर
माँ की खुशियाँ झलक रही थी
मुस्कुराते होठों ,भीगी पलकों से
माँ बाप का अभिमान थी
वो लड़की
इसी आँगन .....................
जब लाल जोड़े में लिपटे
बन कर दुल्हन आई वो
आँखों में सतरंगी सपने लिए
सात वचन ले सात जन्मो का साथ निभाने
चली गई पिया के संग वो
पिता के आँखों में थे अश्रुधार
माँ की भीगी पलके भी दूर तक निहार रही थी
अपने बगिया के फुल को
माँ बाप का परायाधन थी
वो लड़की
इसी आँगन .........................
जब लौट आई पीया के घर से वो
बिखर गए थे सपने उसके
टूट चुकी थी वो
मन में ढेरो
थे सवाल
खामोश निगाहें पूछ रही थी
माँ बाप से किस गुनाह की सजा है ये
पिता चुप, खामोश थे
माँ ने चुपचाप सिने से लगाया उसे
रुक नहीं सके दोनों के अश्रुधार
माँ बाप के लिए सवाल थी
वो लड़की
इसी आँगन में देख रही हूँ उसे
जब पड़ी है धरती पर वो
उसी लाल जोड़े से लिपटे
बिलकुल खामोश थी
दर्द की लकीरे थी चेहरे पर
सवालों से भरी आँखे बंद थी
उसी कंधे में फिर उठाया है पिता ने उसे
जिसमे बिठा कर घुमाया था उसे ,
उठाई थी डोली लाडली की,
आज फिर जा रही है लाडली
उसी कंधे पे हो के सवार
लाल जोड़े में लिपटे
निकल रही है द्वार से वो
माँ बाप की आँखों का तारा ,
उनका अभिमान
अन्नत में विलीन होने
आज इस आँगन में एक सन्नाटा है
जो टूटता है कभी हलकी सिसकियों से
कभी माँ की चीत्कार से
माँ बाप के लिए एक लाश है
वो लड़की
आज फिर खड़ी हूँ इसी आँगन में मै
देख रही हूँ उस लड़की को
जिसे देखा था कभी मासूम मुस्कराहट लिए
नन्हे नन्हे कदमो से चलते
तोतली जुबान बोलते
माँ बाप के सपने पुरे करते
दुल्हन बन पिया के घर जाते
अंतहीन यात्रा में जाते
आज फिर आई है इसी आँगन में वो
एक छोटे से मिटटी के पात्र में
बनकर राख
जो खो जाएगी गंगा की धार में
आज माँ बाप के लिए बस एक याद है
वो लड़की






आकाश नहीं बनना चाहती मै















आकाश नहीं बनना चाहती मै ,
वहां कुछ नहीं केवल शुन्य है,
आकाश नहीं छूना मुझे
वहां कुछ नहीं केवल ऊचाईयाँ है
आकाश नहीं देखना मुझे
वहां कुछ नहीं सूर्य की तपिश है,
चंद्रमा की जलन है
मै धरती की प्राणी
मुझे धरती में रहना है
यंहा शुन्य नहीं सारा संसार है
ऊचाईयाँ नहीं धरती की गोद है
दूरियाँ नहीं अपनों का साथ है
सूर्य की तपिश नहीं खुशियों की छांव है
आकाश नहीं बनना चाहती मै
धरती की प्राणी, धरती में रहना है

आज फिर तेरी याद आई है


आज फिर तेरी याद आई है,
जब उस सुहानी शाम को,
तुम मिले थे मुझसे ,
इसी शाख के नीचे ,
उन दो अजनबी आँखों से देखते ,
आज फिर .................
जब उस सुरमई शाम को ,
तुमने किया था अपनी मुहब्बत का इजहार ,
इसी शाख के नीचे,
उन दो प्यारी आँखों से देखते,
आज फिर...................
जब उस सिंदूरी शाम को
तुमने वादा किया था ,
जनम जनम सांथ निभाने का
इसी शाख के नीचे ,
उन दो मुस्कुराती आँखों से देखते,
आज फिर ....................
जब उस घनी शाम को
तुम आये थे मुझसे मिलने
अपने वादों को तोड़ने,
इसी शाख के नीचे,
उन दो छली आँखों से देखते,
आज फिर ..........................
इस बेनामी शाम को
जब कड़ी हूँ मै
इसी शाख के नीचे
बन के खुद से अजनबी
समेटी हुई उन यादों को
जो जिवंत थे कभी
तुम्हारे साथ,
अपनी इस निस्तेज , नीरस आँखों से देखते.